गुरुवार, 17 अक्तूबर 2019

अमृत मंथन 2019 (भाग 2) जिम्मेदारी के दौर में पत्रकारिता के लिए साहसिक होने की जरूरत है गांवों की पत्रकारिता खत्म हो रही ?

 


किसान जब आत्महत्या करता है, तभी समाचार  क्यों? 


नया लुभावना संसार बनाने में मीडिया हिस्सेदार बन गया है


सरकार कितनी ही निरंकुशतावादी हो, वह अस्थायी होती है


बैतूल 17अक्टूबर ।।वामन पोटे।। मेरा मानना है कि हिंदी-अंग्रेजी पत्रकारिता के बीच का बंटवारा अब पुराना हो चुका है, इस दौर में पत्रकारिता सिर्फ पत्रकारिता है। चाहे हिंदी ,अंग्रेजी ,तमिल भाषा मे छपी खबर हो या चाइनीज में, अगर कंटेंट मे दम है तो उसका प्रभाव पड़ता है। क्वॉलिटी कंटेंट ही इम्पैक्ट डालता है।साहसिक पत्रकारिता आज के समय की जरूरत है।
टेक्नॉलजी के इस दौर में अब लैंग्वेज बैरियर जैसा कुछ नही रहा है। ऐसी तकनीक आ गई है जो भाषाओं का तुरंत अनुवाद कर देती है। आने वाले समय में हम लाइव ट्रांसलेशन करने वाले टूल्स भी देखेंगे। इसलिए मैं स्पष्ट तौर पर कहता है कि अब पत्रकारिता की भाषा पर बहस की जरूरत नहीं है, जरूरत है तो बेहतर कंटेंट की पत्रकारिता की और जरूरत मंद की मदद करने की  । 
अंग्रेजी में किसी नयी शुरुआत के लिए फंडिंग करने वालेआज मिल जाते हैं, लेकिन भाषायी पत्रकारिता को फंड उपलब्ध कराने वाला कोई नहीं होता। हमारे देश का माहौल अंग्रेजी को सिर पर बिठाता है और देशी भाषाओं को कमतर आंकता है। आज व्यवसायिक युग में बैतूल जिले में  जितना दबाव पत्रकार महसूस करते हैं, उससे कहीं ज्यादा दबाव प्रेस के लिए इसी देश में इमरजेंसी के दौर  में था लेकिन, भरोसा इस बात से मिलता है कि कितना ही  ताकतवर प्रधानमंत्री ,मुख्यमंत्री ,मंत्री ,
सांसद, विधायक  ,राजनेता या  निजाम हो ,किसी भी  पार्टी का हो  ,व्यक्ति और सरकार कितनी ही निरंकुशतावादी हो, वह अस्थायी होती है।5, 10 या 15 साल में उसे जाना होता है। एक अच्छे पत्रकार, अखबार या चैनल की उम्र उससे ज्यादा होती है। पत्रकारिता के क्षेत्र  में आने वालों को लंबी तैयारी के साथ आना चाहिए। आज जो दबाव दिख रहा है, पहले नहीं था, वह है "₹ "सोशल मीडिया"₹" समाज की एक ऐसी लहर चली है कि पाठक और दर्शक का दबाव शायद सरकारी दबाव से भी ज्यादा ताकतवर हो गया है।अब स्थिति यह है कि अधिकांश  पत्रकार ,अखबार और चैनलों में यह हिम्मत नहीं है कि वे अपने दर्शकों की भावना के खिलाफ कोई समाचार लिख सके या चला सकें।अभी आप मोदी के खिलाफ खबरें चलायेंगे, तो लोगों को अच्छी नहीं लगतीं।राजनेता अधिकारी  निजाम की किसी तरह की आलोचना लोगों को बर्दाश्त नहीं है। जिस तरह की गालियां मिलती हैं, प्रतिरोध होता है कि कोई रास्ता नहीं दिख रहा। दिमागों की खिड़कियां बंद हो गयी हैं।ये दौर मैंने नहीं देखा। और यह भी एक बहुत बड़ा दबाव है, जो मीडिया महसूस कर रहा है।  पुराने मीडिया घराने का अपने पाठकों से गहरा संबंध है, तो वे टिके हैं। आजकल के मीडिया के साथ ऐसा नहीं है। एड वर्ल्ड के किंग मार्टिन सॉरेल ने कह था कि अच्छे पत्रकारों को लीक से हट कर मदद की जरूरत है।  एक खबर चैनल में मुश्किल से 10-12 खबरें मिलती हैं, जिसमें कई खबरें पुरानी होती हैं. लेकिन, समाचार पत्र देख कर यह संतोष होता है कि हर पन्ने पर अलग-अलग तरह की, अलग-अलग जगह की खबरें होती हैं। चैनलों पर अखबार की तुलना में बहुत कम खबरें होती हैं और उसका दायरा भी सीमित होता है. टीवी और सोशल मीडिया ने एक बड़ी चुनौती पैदा की है। नयी पीढ़ी की जरूरतें और उन्हें पूरा करने का दबाव बढ़ा दिया है। लाइफस्टाइल जर्नलिज्म की खूब चर्चा होती है। इसलिए गांवों की पत्रकारिता खत्म हो रही है। किसान जब आत्महत्या करता है, तभी समाचार बनता है, क्यों? गरीब महिला का बलात्कार होता है, तभी वह खबर बनती है, क्यों ? हम लुभावनी चीजों की ओर आकर्षित होते हैं, बदसूरती से हम दूर भागते हैं । हम चमकदार, प्यारी-सी दुनिया में जीने की कोशिश करते हैं, जिसकी वजह से पलायनवाद का नया लुभावना संसार बनाने में मीडिया हिस्सेदार बन गया है। 
पत्रकारिता का काम जोखिम भरा हो गया है फिर  भी साफ सुथरी विचार धारा जीवित रखना जरूरी है ताकि लोकतंत्र बरकरार रहे। 
धर्मांधता की आड़ में समाज मे  घिनौने काम करने वाले धर्म की आड़ और पाखंडी लोगों को सजा मिलती रहे और उनको शह देने वाले राजनेता शर्मसार होते रहें। छोटे शहरों में पत्रकारिता करना बेहद जोखिम भरा है। बड़े शहरों में कॉरपोरेट स्तर पर पत्रकारिता का काम हालांकि इतना जोखिम भरा नहीं है लेकिन पिछले कुछ दिनों से वहां भी पत्रकारिता करना जोखिम भरा हो गया है। कई  पत्रकारों की हत्या की जा चुकी है जबकि पत्रकार फ्रीडम में हमारा स्थान विश्व में 136वां है। हैरत की बात तो यह है कि हम ऐसे जिले में पत्रकारिता कर रहे हैं जहां लोकतांत्रिक मूल्यों को खुद संवैधानिक पदों पर बैठे लोग चोटिल कर रहे हैं। ऐसे में पत्रकारिता के लिए चुनौतियां बड़ी हैं और इस बड़ी जिम्मेदारी के दौर में पत्रकारिता के लिए साहसिक होने की जरूरत है। पत्रकारों को ऐसे समयों में चारण नहीं होना है। 
न्याय और संवेदना एक दूसरे के पूरक होने चाहिए। न्याय लोकतंत्र का महत्वपूर्ण भाग है। लेकिन जितनी समानता संविधान में है उसे लागू करने वाले उतने समानता पसंद नहीं हैं। ठीक यही स्थिति न्याय को लागू करने वालों की है। न्याय, संविधान और व्यवस्था तब तक बेहतर रूप में लागू नहीं होगी जब तक जन संवेदनशील नहीं होगा। 


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