खिरकिया। नगर में विराजित जैन श्वेताम्बर संत संदीपमुनि मसा ने प्रवचन में कहा कि जीव भोगो से तृप्त नही होता तब तक उसे छोड़ने का प्रयास नही करता है। इन भोगो से तृप्ति होती नही है। जितना जितना भोग भोगते है, वहां असाक्ति उतनी अधिक होती है। जीव भोगो से तभी तृप्त होगा जब तप व संयम के कोडे़ पड़ेंगे। भोगो को छोड़ने के लिए स्वयं को ही पुरूषार्थ करना होगा। विभाव दशा में गया जीव संयम से तप से अपनी वास्तविक मुल दशा प्राप्त कर सकता है। साक्षात तीर्थंकर भगवान के सामने भी जीव अशुभ विचार करता है, क्योकि मोह की दशा ही ऐसी है। भोगो को आसक्ति से भोगने वाला जीव कर्म प्रकृति को और गाढ़ी कर लेता है। सिगरेट छोड़ना बहुत आसान है। मात्र अंगुलियों को ढीली छोड़ना है। सिगरेट अपने आप छूट जाएगी, पर वास्तविकता तो यही है कि अंगुलियों को छोड़ने से कुछ नही होगा, जब तक मन उसको नही छोड़े तब तक वह छूट नही सकती। मन की पकड़ ही ऐसी है, जो दुखो का मूल है। भोग को छोड़ने के लिए उसके पहले मन से छोड़ेंगे तो ही छुटेगी। अतिशयमुनि मसा ने कहा कि वीतराग धर्म की आराधना करते हुए जीव संसार से मुक्त हो जाता है, पर जीव संसार से मुक्त नही होना चाहता है, क्योकि इस संसार में ही सुख मान बैठा है। यह सुख तो क्षणिक है, इंन्द्रियों के अधीन है। अधिकांश जीवों को शरीर का सुख प्यारा लगता है। इसी कारण जीव यह सारी पाप क्रिया करता है। आत्मसुख का भान नही होगा तब तक शरीर के सुख को गौण नही करता है। जितनी भी शारीरिक सुख की चाहना है, उतना ही पाप क्रियाओं को बढ़ाएगा। जब तक आराधना का लक्ष्य संसार सुख व शरीर सुख को छोड़कर आत्मिक सुख नही होगा तब तक संसार का अंत नही होगा।
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